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जानें कैसे शुरू करें मशरूम की खेती ? घर बैठे कम लागत में कमाए लाखों रुपये।

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"मशरूम" को क्षेत्रीय भाषाओं में कुंभ, छत्रक, गर्जना एवं धरती के फूल आदि नामों से जाना जाता है। अपनी पौष्टिकता एवं अन्य बहुमूल्य गुणों के कारण इसे रोम में 'फूड ऑफ गॉड' एवं भारत में इसे 'सब्जियों की मल्लिका' कहा जाता है। मशरूम एक स्वादिष्ट प्रोटीन युक्त उत्पाद है, जो अपना भोजन सड़े-गले निर्जीव जैव पदार्थों से प्राप्त करता है। इसमें 28-30% तक उच्च गुणवत्ता के प्रोटीन (शुष्क भार के आधार पर) होती है।   प्रति 100g मशरूम में निम्न पोषक तत्व पाए जाते हैं- • पानी - 88.5% • प्रोटीन - 3.1g • वसा - 0.8g • खनिज - 1.4g • रेशा - 0.4g •  कार्बोहाइड्रेट - 4.3g • ऊर्जा - 43kg कैलोरी • कैल्शियम - 6mg • फॉस्फोरस - 110mg • लौह तत्व - 1.5mg मशरूम की खेती क्यों करें- भारत में अधिकांश जनसंख्या शाकाहारी है, ऐसे में प्रोटीन की आवश्यकता की पूर्ति में मशरूम की मांग आने वाले समय में तेजी से बढ़ सकती है। मशरूम की मांग को देखते हुए किसान भाइयों द्वारा इसे एक कुटीर उद्योग के रूप में अपनाया जा सकता है, जो उनके लिए एक अतिरिक्त आय का साधन हो सकता है। इसके अलावा मशरूम की खेती के अन

पशुओं को नमक ईट ( मिनरल ब्लॉक) देने के चमत्कारी फायदे।

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जब हरे चारे की कमी होती है, अधिकतर पशुओं को सूखे चारे और भूसे पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे चारे में नाइट्रोजन एवं अन्य पोषक तत्वों की मात्रा कम होती है। ऐसे समय में नमक ईट पशुओं के लिए एक पूरक आहार का कार्य करता है। नमक ईट विभिन्न सामग्रियों को मिलाकर बनाया जाता है, जिसमें यह तत्व भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। नमक ईट को जुगाली करने वाले सभी पशुओं को दिया जा सकता है। आइए जानते हैं नमक ईट कैसे बनाया जाता है और इसे पशुओं को खिलाने के क्या फायदे है। नमक ईट बनाने के लिए आवश्यक सामग्री गेहूं का चोकर - 250g काली मिट्टी/ मुल्तानी मिट्टी - 250g मुर्गी का गोबर - 250g कपास/ तिसी की खली - 150g नमक -100g गुड़/ मोलासेस - 100g चुना - 50g खनिज मिश्रण - 50g नमक ईट बनाने की विधि कपास/ तीसी की खली एवं गुड़ को पीसकर दोनों मिश्रण  को आपस में मिलाते हैं। तीसी की खली प्रोटीन का एक अच्छा स्रोत है जो पशुओं की वृद्धि के लिए आवश्यक है। गुड़ ऊर्जा का एक अच्छा स्रोत है एवं पाचन क्रिया में मदद करता है। इसके बाद इसमें मुल्तानी मिट्टी मिलाते है, यदि मुल्ताानी मिट्टी ना हो तो काली मिट्टी का भी प्रयोग कर स

बकरी की 7 सबसे अधिक मुनाफा देने वाली भारतीय नस्लें।

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' बकरी पालन' एक कम लागत एवं ज्यादा मुनाफा वाला व्यवसाय है। इस वजह से यह व्यवसाय हमारे देश में तेजी से बढ़ रहा है। बकरी पालन किसानों की आय का मुख्य जरिया बनता जा रहा है। दूसरे मवेशियों की तुलना में इसमें नुकसान होने की संभावना कम होती है। बकरी पालक बकरी की अच्छी नस्लों का चयन करके अपना मुनाफा और भी बढ़ा सकते हैं। वैसे तो बकरी की कई नस्लें है, परंतु पशुपालक को अपने क्षेत्र के हिसाब से नस्ल का चयन करना चाहिए, जो उनके क्षेत्र के लिए अनुकूल हो। बकरी की मुख्य नस्लें 1. ब्लैक बंगाल क्षेत्र - बकरी की यह नस्ल मुख्यत: बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, मेघालय व असम राज्यों में पाई जाती है। पहचान यह बकरी छोटे कद परंतु गठीला शरीर वाली होती है, इनके शरीर पर छोटे तथा चमकीले बाल होते हैं।  इसका रंग सामान्यत: काला होता है, परंतु यह हल्के लाल, भूरे या सफेद रंग की भी हो सकती है।  इनके सिंग छोटे और पैर कम लंबे होते हैं। यह एक अच्छी जनन क्षमता वाली मांस उत्पादक नस्ल है।  इनके नर एवं मादा दोनों में दाढ़ी होते है।इसका शारीरिक वजन नर 25-30kg, एवं मादा 20-25kg होता है। विशेषता  

'हरी खाद' के प्रयोग से कम लागत में करें अधिक उत्पादन।

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'हरी खाद' का अभिप्राय उन पत्तीदार दलहनी फसलों से है, जिन की वृद्धि शीघ्र होती है, तथा बड़ी होने पर फूल एवं फल आने के पहले इन्हें जोत कर मृदा में दबा दिया जाता है। यह फसलें सूक्ष्म जीवों द्वारा विघटित होकर मृदा में जीवाश्म तथा पौधों में पोषक तत्वों की मात्रा में वृद्धि करती है। यह फसलें अपने जड़ ग्रंथियों में उपस्थित सहजीवी जीवाणु द्वारा वातावरण से नाइट्रोजन का अवशोषण कर मिट्टी में स्थिर करने का कार्य करती है। इससे मृदा की भौतिक एवं रासायनिक संरचना में सुधार होता है। इसके प्रयोग से वातावरण तथा भूमि प्रदूषण की समस्या को भी समाप्त किया जा सकता है। रसायनिक उर्वरकों के कम प्रयोग से उत्पादन लागत में कमी करके, किसान भाइयों की आर्थिक स्थिति को बेहतर किया जा सकता है। हरी खाद के लिए उपयुक्त फसल हरी खाद के लिए ऐसी फसल को लेते हैं, जिसमें शीघ्र वृद्धि करने की क्षमता हो। फसल प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों जैसे अधिक या कम ताप अधिक या कम वर्षा सहन करने वाली हो। फसल विभिन्न प्रकार की मृदा में पैदा होने में समर्थ हो। फसल की जल व पोषक तत्वों की मांग कम हो। फसल की वानस्पतिक वृद्धि (शा

इन पांच सरल विधियों से करे नकली एवं मिलावटी उर्वरकों की पहचान

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वर्तमान समय में अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता ज्यादा है, अतः रासायनिक उर्वरकों की मांग ज्यादा लेकिन आपूर्ति कम है। परिणाम स्वरूप कई बार विक्रेताओं द्वारा किसानों को नकली या मिलावटी उर्वरकों की बिक्री कर दी जाती है, जिससे फसलों पर यथोचित परिणाम देखने को नहीं मिल पाता है और किसान भाइयों को भारी नुकसान का वहन करना पड़ता है। किसान भाइयों के बीच प्रचलित उर्वरकों में से यूरिया, डीएपी, म्यूरेट ऑफ पोटाश, जिंक सल्फेट मिलावटी रूप में बाजार में उतारे जाते हैं। खरीदारी करते समय किसान भाई सर्वप्रथम इसकी जांच बताए गए निम्न सरल विधि से कर सकते हैं। उर्वरक नकली पाए जाने पर इसकी पुष्टि किसान सेवा केंद्रों पर उपलब्ध टेस्टिंग किट से की जा सकती है।  टेस्टिंग किट किसान सेवा केंद्रों पर उपलब्ध कराए जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में विधिक कार्यवाही किए जाने हेतु इसकी सूचना जनपद के उप कृषि निदेशक (प्रसार)/जिला कृषि अधिकारी एवं कृषि निदेशक को दी जा सकती है। उर्वरक में मिलावट उर्वरकों में मिलावट प्रायः दो प्रकार से की जाती है- 1.सस्ते उर्वरक को मंहगे उर्वरक में मिलाना। 2.उर्वरक विहीन प

अजोला: कृषि और पशुपालन के लिए वरदान।

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अजोला एक तेजी से बढ़ने वाला जलीय फर्न है, जो सामान्यतः धान के खेतों में पाया जाता है। इसे एनाबीना एजोली के नाम से भी जाना जाता है, जो वातावरण से नाइट्रोजन स्थायीकरण के लिए उत्तरदायी होता है। यह एक जैव उर्वरक के रूप में कार्य करता है, जिससे धान की उपज बढ़ती है। इसके साथ-साथ यह पशुओं, मछलीयों, मुर्गियो, भेड़ एवं बकरियों के चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है। अजोला एक सस्ता चारा है, इसे आसानी से कम लागत में घर पर उगाया जा सकता है। अजोला के गुण यह जल में तीव्र गति से बढ़ता है। इसमें उत्तम गुणवत्ता युक्त प्रोटीन होता है, पशु इसे आसानी से पचा लेते हैं। इसमें शुष्क मात्रा के आधार पर 40 - 60% प्रोटीन, 10 -15% खनिज एवं 7-10% अमीनो अम्ल पाए जाते हैं। इसके अलावा इसमें विटामिन ( विटामिन ए, विटामिन B12 तथा बीटा कैरोटीन ) विकास वर्धक तत्व एवं खनिज ( कैल्शियम, फास्फोरस, पोटेशियम, कॉपर, मैग्नीशियम इत्यादि) पाए जाते हैं। यह पशुओं के लिए आदर्श आहार के साथ-साथ एक उत्तम खाद के रूप में भी उपयुक्त है। यह जानवरों के लिए प्रतिजैविक का काम करती है। सामान्य अवस्था में या 2 - 3 दिनों में दोगुनी हो जाती है। इसक

भारतीय वैज्ञानिकों का कमाल "नैनो यूरिया" : एक बोरी खाद की जगह सिर्फ आधे लीटर लिक्विड से चल जाएगा काम।

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नैनो यूरिया क्या है? ' नैनो यूरिया' नैनो कण के रूप में यूरिया का एक रूप है, जिसमें कणों का आकार 20 से 50 नैनोमीटर होता है। यूरिया एक रासायनिक नाइट्रोजन उर्वरक है, जो सफेद रंग का होता है। कृत्रिम रूप से यह पौधों को नाइट्रोजन प्रदान करता है, जो पौधों के लिए प्रमुख पोषक तत्व है। ' नैनो यूरिया'  नैनो तकनीक से बना लिक्विड रूप में होता है, इसमें यूरिया की मात्रा वजन का 4 % अर्थात 40000 mg प्रति लीटर नाइट्रोजन होता है। किसान भाई वर्षों से पारंपरिक दानेदार यूरिया का प्रयोग करते हैं, उसी के विकल्प के रूप में अपने देश में ही इफको द्वारा निर्मित नैनो यूरिया , यूरिया का एक बहुत ही बढ़िया विकल्प है। नैनो यूरिया की प्रभावशीलता 85% से 90% तक होती है जबकि पारंपरिक यूरिया की प्रभावशीलता 30 से 40% तक ही होती है। भारतीय किसान उर्वरक सहकारी लिमिटेड इफको ने अगस्त 2021 में देश का पहला लिक्विड नैनो संयंत्र चालू किया था। इसका उद्देश्य पारंपरिक यूरिया के असंतुलित और अत्यधिक उपयोग को कम करना है तथा मृदा जल एवं वायु प्रदूषण को कम करना है। इफको के अनुसार नैनो यूरिया की एक बोतल का प्र

"पूसा डी कंपोजर" कैप्सूल से कम खर्च में करें, फसल अवशेष (पराली) प्रबंधन

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बायो डी कंपोजर क्या है? बायो डी कंपोजर लाभकारी सूक्ष्माजीवों के एक समूह से बना है, जो फसल अवशेषों, पशु अपशिष्ट तथा अन्य कचरों को गला कर तेजी से जैविक खाद में परिवर्तित करता है। बायो डी कंपोजर में गुड़ और बेसन का घोल होता है, जो मिट्टी में केंचुए के लिए भोजन का कार्य करता है और मिट्टी को उपजाऊ बनाता है। पूसा डी कंपोजर क्या है? फसल अवशेष प्रबंधन की यह नई तकनीक 'भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान'(IARI) नई दिल्ली, द्वारा विकसित की गई है, जिसे 'पूसा  डी कंपोजर' नाम दिया गया है। इससे बिना खर्चे के पराली को खाद के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। 'पूसा डी कंपोजर' एक प्रकार का एंजाइम है, जिसमें कवक की 8 प्रजातियां शामिल है, जो पराली को मिट्टी में बदलने को 100% कारगर है। पूसा डी कंपोजर के एक किट में 4 कैप्सूल होते हैं, जिससे 1 हेक्टेयर क्षेत्र के पराली को नष्ट किया जा सकता है। इससे पर्यावरण को किसी भी प्रकार की हानि नहीं पहुँचती है। पूसा डी कंपोजर घोल कैसे तैयार करें- 'पूसा डी कंपोजर' कैप्सूल के रूप में होता है, इसका घोल तैयार कर खेतों में छिड़काव किया जाता है। घो

आइए जाने क्या है, "फसल अवशेष( पराली) प्रबंधन", पराली जलाने पर देना पड़ सकता है 15000रू तक जुर्माना

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फसल अवशेष पक्की फसल के कटने के बाद बाकी बचा हिस्सा होता है। किसान फसल पकने के बाद उसका ऊपरी हिस्सा काट लेते है। बाकी हिस्सा खेत में छोड़ देते है, जो किसानों के लिए बेकार होता है वर्तमान में फसल अवशेष की समस्या इसलिए आ रही है क्योंकि ज्यादातर किसान मशीनों से फसल की कटाई करते है, जो केवल फसल के ऊपरी हिस्से को काटता है। पराली जलाने के नुकसान - पराली जलाने से पर्यावरण एवं मृदा स्वास्थ्य के साथ-साथ हमारे स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे उत्पन्न वायु प्रदूषण से आंखों में जलन से लेकर श्वसन एवं हृदय संबंधी रोगों के प्रभाव में बढ़ोतरी देखी गई है। दिल्ली में उत्पन्न धुंध की समस्या से वहां के लोगों की औसत आयु में 6 वर्ष की कमी दर्ज की गई है। इससे उत्पन्न वायु प्रदूषण का प्रभाव हमारे अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा है। वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली मे पर्यटकों से आमद मे 25-30 % की कमी आई है। 1टन फसल अवशेष जलाने से उत्सर्जित होता है- Particulate matter -3kg कार्बन डाइऑक्साइड-1460kg कार्बन मोनोऑक्साइड-60kg सल्फर डाइऑक्साइड-2kg नाइट्रस ऑक्साइड-3.8kg मीथेन- 2.7kg राख-199kg   1. फसल अवशे

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना(PMFBY), जानेंगे आप तो मिलेगा लाभ

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प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना क्या है? प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना किसानों की फसलों से जुड़े हुए जोखिमों की वजह से होने वाले नुकसान की भरपाई करने का माध्यम है। योजना में प्राकृतिक आपदाओं, रोगों, कृमियों से क्षति की स्थिति में कृषकों को बीमा कवर के रूप में वित्तीय सहायता का प्रावधान है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना कब शुरू की गई? इस योजना की शुरुआत 18 फरवरी 2016 को माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गई थी। 2016 में 21 राज्यों के द्वारा खरीफ मौसम में इसे लागू किया गया था। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अंतर्गत कौन-कौन से जोखिम शामिल हैं?                                      1.बुवाई ना कर पाने/ असफल अंकुरण जोखिम - बीमित क्षेत्र में कम वर्षा तथा प्रतिकूल मौसम दशाओं के कारण बुवाई न कर पाने, बुवाई के उपरांत अंकुरण ना होने से हुई, हानि से सुरक्षा प्रदान करता है। प्रतिकूल मौसमी स्थितियों से ग्राम पंचायत में 75% से अधिक क्षेत्र में फसलों की बुवाई ना कर पाने या असफल बुवाई की स्थिति में उत्पादन लागत में व्यय के अनुरूप कृषक को बीमित राशि का अधिकतम 25 % क्षतिपूर्ति देय होती है । उप

आइए जाने क्या है श्री विधि ? कैसे इसके द्वारा कम लागत में अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है?

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वैसे तो धान के उत्पादन की अनेकों पद्धतियां हैं, जैसे- ट्रांसप्लांटिंग, ब्रॉडकास्टिंग, ड्रिलिंग, डिबलिंग, डेपोग इत्यादि। परंतु वर्तमान परिस्थितियों एवं उपलब्ध संसाधनों को ध्यान में रखते हुए हमें एक ऐसी पद्धति को अपनाने की आवश्यकता है, जिससे कम लागत में अधिक उत्पादन प्राप्त की जा सके एवं जो पर्यावरण के लिए भी सुरक्षित हो। ऐसी ही एक पद्धति है , SRI आइए हम विस्तार से इस पद्धति की चर्चा करते हैं। SRI क्या है ? सिस्टम ऑफ राइस इंटेंसिफिकेशन जिसे संक्षेप में SRI (श्री विधि) भी कहते हैं, धान की एक ऐसी पद्धति है, जिसमें मृदा उत्पादकता, जल उपयोग दक्षता, श्रम शक्ति एवं निवेश की गई पूंजी की दक्षता एक साथ बढ़ाने की क्षमता है। श्री विधि से उगाई गई फसल परंपरागत विधि से उगाई गई फसल की अपेक्षा औसतन 10-30% तक अधिक पैदावार देती है। श्री विधि के अंतर्गत ना केवल अतिरिक्त उपज प्राप्त होती है, बल्कि 50 % तक जल की बचत, 90 % तक बीज की बचत, मृदा स्वास्थ्य में सुधार, 30 - 40 % तक रसायनिक उर्वरक की बचत होती है। इस पद्धति से कम लागत में अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। SRI पद्धति से धा

आइए जानते हैं ' मृदा परीक्षण' क्या है, इसकी आवश्यकता क्यों है, मृदा नमूना एकत्र करने की विधि एवं सावधानियां।

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मृदा परीक्षण -  'मृदा परीक्षण' मृदा के किसी नमूनेे की प्रयोगशाला में रासायनिक जांच है, जिससे मृदा में पोषक तत्वों की मात्रा की जानकारी मिलती है। इस परीक्षण का उद्देश्य मृदा की उर्वरता मापना तथा यह पता करना है कि मृदा में कौन सी पोषक तत्वों की कमी है। मृदा परीक्षण की आवश्यकता  -  मृदा में पोषक तत्वों का भंडार है, मृदा केेेे सहारे ही पौधे सीधे खड़े रह पाते हैं। पौधों को अपनी वृद्धि एवं विकास के लिए 16 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। इन तत्वों को दो वर्गों में बांटा गया है। 👉मुख्य तत्व - कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन नाइट्रोजन, फास्फोरस ,पोटाश, कैल्शियम, मैग्नीशियम, सल्फर  👉सूक्ष्म तत्व - जिंक, मैग्नीज, कॉपर, आयरन, बोरॉन, मोलिब्डेनम व क्लोरीन इन सभी तत्वों का संतुलित मात्रा में प्रयोग से ही गुणवत्ता युक्त पैदावार प्राप्त की जा सकती है। लगातार फसल उत्पादन में वृद्धि एवं बढ़ती सघन खेती के परिणाम स्वरूप पोषक तत्वों का ह्रास भी बढ़ रहा है, परंतु उर्वरकों का सही मात्रा में प्रयोग ना होने के कारण इन पोषक तत्वों की आपूर्ति नहीं हो पा रही है, परिणाम स्वरूप भूमि की उर्वरा शक्